श्रमिक दिवस पर विशेष

श्रमेव जयते के निहितार्थदेश की आजादी की 75 वर्षों की यात्रा विभिन्न मोर्चों पर विकास ,समृद्धि और खुशहाली की यात्रा है यद्यपि आपसी संघर्ष और टकराव भी इस यात्रा के सहगामी है। आजादी की अमृतवेला में इस दीर्घकालीन यात्रा में लगभग सभी वर्गों ने व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी मोर्चों पर चेतना और विकास का अमृत चखा है परंतु इस यात्रा के स्याह पक्ष के रूप में में एक शोषित ,उपेक्षित और बदहाल वर्ग ऐसा भी है जो संपूर्ण व्यवस्था के स्वप्नों व विकास की आधारशिला है, सपनों को मूर्त रूप देने वाला शिल्पकार है या यूं कहे विकास रुपी गगनचुंबी इमारतों की एक एक ईंट को उसने अपने रक्त और पसीने से सींचा है ।यह वर्ग है कामगारों और श्रमिकों का जिनका शरीर ही उनकी एकमात्र पूंजी है जिसकी 100% ऊर्जा का व्यय कर वह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी बमुश्किल कर पा रहा है । जब रोजमर्रा की आवश्यकता ही पूरी ना हो तो भौतिक सुख सुविधाएं तो इनके लिए दूर की कौड़ी है और राजनीतिक और सामाजिक चेतना तो दिवास्वप्न मात्र है। मैस्लो के अभिप्रेरणा सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति की शारीरिक व भौतिक आवश्यकताएं पूर्ण होने के पश्चात ही सामाजिक और राजनीतिक पहचान व चेतना की मांग उठती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के काल से लेकर वर्तमान तक देश में मजदूरों व श्रमिकों की स्थिति का आकलन करें तो पाएंगे विकास के चढ़ते पाएदानों के साथ इस वर्ग की सामाजिक और आर्थिक स्थिति निम्न से निम्नतर होती गई क्योंकि भारत सहित संपूर्ण विश्व में पूंजीवादी विकास का जो मॉडल अपनाया है उसकी धूरी यह वर्ग है परंतु व्यवस्था के निर्गत के रूप में इसके हिस्से भरपेट व आत्मिक संतुष्टि का भोजन भी लाभांश के रूप में नहीं आता ।स्वतंत्रता प्राप्ति ज्यो ज्यो अर्थव्यवस्था के आयामों में तेजी से परिवर्तन हुआ यथा कृषि भूमि में उत्तरोत्तर घटोत्तरी , औद्योगिक क्षेत्र का विकास, गांव से शहरीकरण की ओर बढ़ती प्रवृत्ति ,समाजवाद से पूंजीवाद की ओर बढ़ते कदम और जैसे-जैसे यह प्रवृतियां समाज केंद्रित व्यवस्था से व्यक्ति केंद्रित व्यवस्था की ओर उन्मुख हुई त्यों त्यों यह वर्ग आर्थिक पायदान में नीचे की ओर खिसकता चला गया ।इस दौरान ऐसा नहीं है कि व्यवस्था ने इनकी स्थिति को सुधारने के लिए प्रयास नहीं किए। देखा जाए तो इन 75 वर्षों में इनकी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए अनेक कानून बने मसलन काम की बेहतर स्थितियां, कार्यस्थल में सुरक्षा, नियत दैनिक और मासिक मजदूरी ,अस्वस्थता की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता , मजदूर महिलाओं के लिए कार्यस्थल में सुविधाएं इत्यादि देने की भरसक कोशिश की गई परंतु बढ़ती जनसंख्या व सुरसा की तरह बढ़ती महंगाई से यह सुविधाएं जीवन की तपती दोपहरी में ऐसे बादलों के समान है जो बिन बरसे निकल जाते हैं ।राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने इस स्थिति का पूर्वानुमान लगा लिया था तभी वे ग्रामीण विकास ,स्वरोजगार , पंचायती राज और आत्मनिर्भर गांवो पर जोर देते थे । वह बड़े बड़े उद्योगों व मशीनों के विरोधी थे क्योंकि वे जानते थे पूंजीवादी व्यवस्था चुनिंदा लोगों की समृद्धि और खुशहाली के एवज मे बड़े तबके के लिए मजदूरी के रूप में मजबूरी लाएगी । यद्यपि वर्तमान विश्व व्यवस्था जो पूंजीवादी धूरी के चारों ओर परिक्रमा कर रही है को मात्र कृषि क्षेत्र पर आधारित विकास पर आश्रित करना बेमानी होगा तथापि इस वर्ग की स्थिति के प्रति जनसाधारण की उच्च स्तरीय सामूहिक चेतना और संवेदनशीलता को जागृत करने की आवश्यकता है। पश्चिमी विचारक मार्क्स ने एक बार नारा दिया था कि संसार के मजदूरों एक हो जाओ” लेकिन इस वर्ग की समस्त उर्जा दो वक्त की रोटी कमाने में ही इतना केंद्रित हो गयी है कि सामूहिक चेतना के प्रति इनकी अभिवृति जागृत ही नहीं हो और आजादी से लेकर वर्तमान तक की राजनीतिक व्यवस्था का विश्लेषण किया जाए तो इतने वर्षों में इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व क्रमशः घटता गया है और अब ना के बराबर है।यद्यपि पिछले कुछ वर्षों में मजदूरी की दर में बढ़ोतरी हुई है तथापि शारीरिक श्रम का मानदेय मानसिक श्रम की तुलना में उसका एक अंश मात्र है अतः आवश्यक है इस अंतर को पाटने का अधिक से अधिक प्रयास किया जाए । मानसिक और शारीरिक श्रम दोनों को समानांतर नहीं तो सम्मानजनक स्तर पर अवश्य लाया जाए । जब तक आर्थिक दृष्टि से मानसिक और शारीरिक श्रम के मानदेय में उचित अनुपात नहीं होगा तब तक इस वर्ग की दशा में सुधार असंभव है ।आज जैसे-जैसे हम आर्थिक समृद्धि की ओर बढ़ रहे हैं और सामाजिक व राजनीतिक रूप से सक्रिय होते जा रहे हैं उस दौर में अगर इस वर्ग को मात्र रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा तो यह मखमल पर टाट के पैबंद के समान है क्योंकि विकास का कोई भी मॉडल तभी सार्थक होगा जब सभी वर्गों को साथ लेकर चला जाए। 2014 में दिया गया नारा “श्रमेव जयते” तभी सार्थक होगा जब शारीरिक श्रम सम्मान व खुशहाली के मुहाने पर होगा , गगनचुंबी भवनों और इमारतों को खड़ा करने वाले इस तबके को अपना साफ सुथरा छोटा सा आशियाना उपलब्ध होगा और मानसिक श्रम की तुलना में उचित वेतन प्राप्त कर अपने परिवार को अच्छा पोषण , शिक्षा व स्वास्थ्य उपलब्ध कराकर अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित व सुंदर भविष्य की नींव तैयार कर सकेगा , जहां वह भी भविष्य के सपनों को बुन सकता है क्योंकि जिस वर्तमान में भविष्य के सपने देखने की गुंजाइश न हो वह मानवता पर आक्षेप है और जब शारीरिक श्रम करने वाला यह वर्ग सम्मानजनक जीवन यापन करेगा तो समाज में व्याप्त मानसिक हिंसा के विभिन्न रूपों में भी कमी आएगी। आर्थिक खुशहाली का दायरा सामाजिक खुशहाली और उत्तरोत्तर राष्ट्र की खुशहाली तक विस्तृत होगा। जीडीपी के आंकड़े एक छोटे से वर्ग को छूते हैं अब आवश्यकता है संगठित और असंगठित क्षेत्र के कामगारों की खुशहाली की जो जीडीपी की नींव है लेकिन जिनकी खुशहाली जीडीपी के गणित से नहीं वरन धनाढ्य वर्ग व निम्न वर्ग के मध्य बढ़ती खाई को पाटने से आएगी। “श्रमेव जयते “तभी सार्थक होगा जब श्रमेव जयते का नारा सिद्ध होगा ।स्मार्ट वर्क की संकल्पना के साथ हार्ड वर्क के रूप में शारीरिक श्रम को उचित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहचान मिलेगी ।इसके लिए आवश्यक है कि इस तबके को राज्य के संकीर्ण परिपेक्ष्य में ना देखते हुए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा जाए उससे भी ऊपर मानवीय परिपेक्ष्य में इनके दुख, अभाव और संवेदनाओ को समझ कर उनकी समस्याओं को दूर किया जाए ।यह मेहनतकश वर्ग स्वाभिमानी है, स्वाबलंबी है इसे हाथ देकर ऊपर उठाया जाए इन्हें सशक्त बनाया जाए।शारीरिक और मानसिक सेवाओं का विनिमय बराबरी के स्तर पर नहीं तो उचित स्तर पर तो किया जाना चाहिए। इसके दो लाभ होगे कोरा शारीरिक श्रम करने वाला भी मानसिक श्रम की ओर अग्रसर होगा और जिम में बेतहाशा पसीना बहाने वाला धनाढ्य वर्ग भी शारीरिक श्रम करने की ओर उन्मुख होगा जिससे समाज में संतुलन भी बनेगा और संविधान के उच्चतम आदर्श मानव की गरिमा व सम्मान की भी प्राप्ति होगी।

बीना नयाल

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