धर्म और प्रवृत्ति।

धर्म का ज्ञान होने और धर्म में प्रवृत्ति होने, दोनों में अंतर है। प्रायः हम सभी को धर्म का ज्ञान तो अवश्य होता है, क्योंकि शरीर के भीतर बैठा आत्मा हमारे हर बुरे कर्म पर हमें टोकता है तथा अच्छे कर्म से वह एक दिव्य आनंद का अनुभव कराता है। किंतु यह भी सत्य है कि धर्म का ज्ञान होने के बाद भी हमारी प्रवृत्ति भी धर्म में हो, यह बहुत दुष्कर होता है।
परम ज्ञानी महाराज रावण जब शिवतांडव की रचना करते हैं तो उनके मन की इच्छा इन शब्दों में प्रकट होती है –
दृषद्विचित्रतल्पयोः भुजंग मौक्तिकस्रजोः
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृदद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषो प्रजामहीमहेंद्रयोः
समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम्।।
अर्थात – पत्थर और सुंदर बिछौने में, नाग और मुक्ता की माला में, बहुमूल्य रत्न और मिट्टी के ढेले में, मित्र तथा शत्रु पक्ष में, तृण अथवा कमललोचना तरूणी में, प्रजा तथा सम्पूर्ण पृथ्वी के राजा में समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव का भजन करूंगा?
महाराज रावण की यह इच्छा हमें बताती है कि वह धर्म को समझते अवश्य हैं, किंतु धर्म का समस्त ज्ञान होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति धर्म में नहीं है। अतः उनका सम्पूर्ण जीवन दूसरों के राज्य, दूसरों के वैभव यहां तक कि दूसरों की स्त्रियों तक का हरण करने में बीता। इसका अंतिम परिणाम क्या हुआ वह भी हम सभी जानते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में भी एक स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण से संवाद करते हुए दुर्योधन कहता है, हे कृष्ण! ऐसा नहीं कि मैं धर्म को नहीं जानता, किंतु क्या करूं? मेरी प्रवृत्ति धर्म में नहीं है।
कहने का सार यही है कि मोल बड़ी बड़ी बातों का नहीं अपितु आचरण का है। अच्छे-बुरे का ज्ञान तो सभी को है, किंतु हम उसे आचरण में कितना उतार पाते हैं असल बात तो यह है। वैसे तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह भी कहा है –
बिनु सत्संग विवेक ना होई, राम कृपा बिनु सुलभ ना सोई।।
तो चिंतित भी मत होइए, बस श्रीराम से प्रार्थना कीजिए कि कब उनकी कृपादृष्टि हमारे ऊपर हो और जिस धर्म को हम जानते हैं वह हमारे आचरण में भी उतर सके।
दिनेश चंद्र पाठक।

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