बुझी हुई सी आँखों में
नैराश्य भाव की बातों में
कांतिहीन कपोलों पर
डर से ठिठके बोलों पर
बल खाती पेशानी पर
इस निस्तेज जवानी पर
संशययुक्त भृकुटियों पर
मुट्ठी भींचे जीवों पर
भूखे-नंगे शिशुओं पर
बेबस माँ की चीखों पर
हाड़ बची इन देहों पर
इन अशक्त से पैरों पर
इन कंपित से हाथों पर
अल्परक्त की गातों पर
मरे हुए इन सपनों पर
निरुद्देश्य से कर्मों पर
अपनी करुणा वार दे
विधाता इक उपहार दे
आशा का अमृत भर दे।
उन्मुक्त हँसी का तू वर दे।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”
“कुछ शब्द ठिठके से” पुस्तक से उद्धृत।।