तुम एक हो, बस एक हो

हर रंग हर परिधान में
मृदु रूप-रस के वितान में
तुम एक हो, बस एक हो
सौंदर्य के आधान में।।

नव सूर्य की सी लालिमा
ज्यूँ चन्द्र की चढ़ती कला
जीवंत हो नव कुसुम सी
तुम सृष्टि के उद्यान में।।

भावों की तुम उत्तेजना
तुम ही हृदय की कामना
मधुछन्द सी गुंजित प्रिये
तुम प्रेम के आह्वान में।।

ज्यूँ काम सह रति सोहती
सबके हृदय नित मोहती
तुम भी बनो सहगामिनी
अब प्रेम के संधान में।।

दिनेश चंद्र पाठक ‘बशर’।।

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