वात्सल्य की प्यास

अनभिज्ञ हूं तुम्हारे गमन से
अंधकार या प्रकाश मार्ग से
कर प्रकाशमान जीवन को
तुम मोह का आवरण हटाके
जीवन सत्य को दीप्ति कर
सौर रश्मियो का जैसे एहसास
कर मुक्त सीमा जंजाल से
विचरने को मुक्त आकाश में।

दुर्लभ मिलना होता है
सानिध्य फरिश्तों का संसार में
सुखद सानंद लम्हे गुजारे
तुम्हारे वात्सल्य की छांव में
दे आशीष तुम निज सामर्थ्य
सितारा रूप धरने से पूर्व
तुम्हारे एहसास की छाया है
कतरा कतरा कर्मों में हमारे।

छटने लगा धुंधलका मन का
तुम्हारे विदा होने के बाद
खुद ब खुद जैसै सुलझ गए
मस्तिष्क के अनुत्तरित सवाल
कुंवारा है यादों का आंगन
भिगो देते हैं अक्सर दामन
सीख रहे हैं हुनर हम भी
ध्वनि बंधन से जाने के पार।

अंबर के उसे छोर में
चांद सितारे भी ना पाते ठौर
कल्पना के उसे लोक में
न चलता जहां इच्छा का जोर
संभव नहीं मनुहार करना
वहां असमय मिल आने की
बस प्रतीक्षारत है सांसे
पुनः पाए वात्सल्य की डोर

स्वर्गीय पिताजी दीवान सिंह नयाल जी की तीसरी पुण्यतिथि के अवसर पर पुत्री बीना नयाल की विनम्र श्रद्धांजलि

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