कामकाजी औरत

कैसी होती है कामकाजी औरत ?
कभी देखा है?
कितना जी पाती है जीवन ?
कभी सोचा है?

घर और दफ़्तर
दो हिस्सों में बँटी देह और दिमाग़
संतुलन बनाने को
किसी कुशल नटी सा अनंत प्रयास।
दो स्थान, दो ज़िम्मेदारियाँ
और उलाहने भी दोनों जगहों से।।

किन्तु जीवन ????
सच कहें तो एक भी नहीं।
किसी चकरघिन्नी की तरह
नाचती सुबह से शाम
हफ़्ते का इतवार भी
दे सका कहाँ आराम ??

फिर भी ख़ुश रहने के
कुछ बहाने चुरा लेती है
साथ पति के हँसती है
बच्चों के संग गा लेती है।।

संतुष्ट करती मन को
कि आज का उसका श्रम
बच्चों का कल बनाएगा
अकेला पति बेचारा
आख़िर कितना कर पाएगा??

किन्तु बेध देता है कोई ताना अक्सर
जब कुछ अलग वो चाहती है।
देखो दर्प में खोई है
क्योंकि ये कमाती है।।

तड़प उठता अंतर्मन ऐसे
मानो हृदय निचोड़ा हो
जीवन भर के तप पर जैसे
मारा कोई हथौड़ा हो।।

कामकाजी शब्द भी यूँ तो
ज्यूँ नारी की खिल्ली हो
लगता जैसे घरेलू महिला
घर में बैठी निठल्ली हो।।

नारी तेरा जीवन जैसे
तरु की कोमल छाया है
किन्तु भाग्य में तेरे फिर भी
सूर्य का ताप ही आया है।।

दिनेश चंद्र पाठक ”बशर”।।

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