पहली मुलाक़ात
तुम और मैं,
तकते एक दूसरे को
झिझकते, सकुचाते
निकट आने को
कुछ अकुलाते,
मिलना दृष्टि का
और खिलना पुष्प,
कुछ तुम्हारे गालों पर
और कुछ जो बने थे
तुम्हारी साड़ी पर,
आमन्त्रण
तुम्हारी आँखों में,
किन्तु
झिझकती चेष्टाएँ,
शायद कहती थीं
तनिक रुको न
कुछ सम्हल तो लूँ,
प्रसन्नता और भय की ख़ुमारी से
व्याकुल मन
होता और भी अधीर,
सोचता बार-बार
कि छू लूँ
तुम्हारी सुगठित सी अंगुलियों को,
तपन महसूस करूँ
तुम्हारे दहकते गालों की,
किन्तु
तुमने खींच रखी थी
एक लक्ष्मण रेखा
अपने झिझकते भावों से,
सत्य है
प्रेम विलक्षण है,
शर्म से झुकती
पलकों की दीवार भी
हो जाती है
वज्र सी अभेद्य,
कुछ क्षण थे वो
पीता रहा
तुम्हारे रूप को
आँखों से,
और फिर चला आया
अतृप्त सा
किन्तु मन में धैर्य लिये
कि शायद
एक प्यास जगा आया हूँ
तुम्हारे भी मन में,
और एक दिन आएगा ज़रूर
जब दो अतृप्त आत्माएं
तृप्त करेंगी
एक दूसरे को
सम्पूर्ण समर्पण के साथ।।
दिनेश चंद्र पाठक “बशर””
4 Comments
डा कविता भट्ट शैलपुत्री
सुंदर रचना
Dinesh Chandra Pathak
जी बहुत बहुत धन्यवाद
अर्पणा
वाह! आपकी पहली मुलाकात😊👌👌
Dinesh Chandra Pathak
हार्दिक आभार अर्पणा जी