महिला सशक्तिकरण के निहितार्थ

महिला सशक्तिकरण से तात्पर्य राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर आधी आबादी के जीवन के प्रत्येक पहलू यथा व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक क्षेत्रों में सशक्त अभिव्यक्ति से है, साथ ही बिना किसी लैंगिक व सामाजिक उत्पीड़न के बिना शर्तों के गरिमामय जीवन की आकांक्षा से संबंधित है। प्रत्येक दशक का समाज पूर्ववर्ती दशक की तुलना में अधिक तीव्रता से महिला सशक्तिकरण की ओर अग्रसर है जो राष्ट्रीय महिला दिवस( 13 फरवरी )व अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च ) की सार्थकता व लक्ष्योन्मुखता के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है।

भारतीय संदर्भ में प्राचीन काल से वर्तमान आधुनिक काल में अनेक महिलाओं ने अपने-अपने तात्कालिक समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सशक्तिकरण के मानदंड स्थापित किए हैं। गार्गी ,लोपामुद्रा, मैत्री ,रत्नावली, और लीलावती जैसी विदुषी महिलाओं ने जहां अपनी विद्वता की छाप छोड़ी तो वही अंतरिक्ष को भेद कर कल्पनाओं को साकार करने वाली कल्पना चावला व सुनीता विलियम्स के हौसले ने दिखाया कि दृढ़ इच्छाशक्ति से किसी भी कल्पना को साकार किया जा सकता है । पौराणिक और सनातनी दृष्टि से माता पार्वती, माता सीता और नारी स्वाभिमान का प्रतीक द्रौपदी जैसी महिलाएं भी हुई जिनके मान-सम्मान की रक्षार्थ रणभूमि सज गई जिसके मूल में स्पष्ट संदेश था कि भविष्य में नारी गरिमा व स्वाभिमान के साथ कोई समझौता नहीं किया जाएगा।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाली रानी लक्ष्मीबाई के साहसी जज्बे, सरोजनी नायडू और सावित्रीबाई फुले के महत्वपूर्ण योगदान के साथ 1971 की बांग्लादेश निर्मात्री इंदिरा गांधी का सशक्त नेतृत्व और भूमिका सशक्त महिला के रूप में मिसाल है। यह उस काल की नारियां है जब नारी सशक्तिकरण का नारा बुलंद नहीं था परंतु इन महिलाओं ने वर्तमान समाज के लिए प्रेरणा व मानक प्रस्तुत किया।इन आदर्श और सशक्त नारियों की संख्या मुट्ठी भर है। बहुसंख्यक नारी समाज आज भी पुरुष प्रधान समाज में ही उनकी नियत के अनुसार अपनी नियति गढ़ने को विवश है । इसी कारण 1908 से साल दर साल अलग-अलग थीम के साथ इस दिवस को मनाया जा रहा है क्योंकि तमाम तरह के कानून ,नियम, प्रावधान महिलाओं के हित में होने के बावजूद परिवार में घरेलू महिला हिंसा ,समाज में यौन उत्पीड़न की घटनाएं , कार्यस्थल में लैंगिक भेदभाव ,वेतन संबंधी नियमितता आज भी जस की तस विद्यमान है जो कि आधी आबादी का दर्द , महिला सशक्तिकरण और विकास की दिशा को आईना दिखाने के लिए काफी है।

यद्यपि इस दिशा में किए जाने वाले प्रयासों का सकारात्मक परिणाम है कि मातृत्व मृत्यु दर में कमी, महिलाओं की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में सुधार, कार्य करने की बेहतर स्थितियां आज महिलाओं को उपलब्ध हैं। वही तस्वीर का एक पहलू यह भी है सशक्तिकरण की दिशा में तमाम प्रयासों और कानूनों के बावजूद पुरुष प्रधान समाज में नारी पर उत्तरदायित्व पुरुष की तुलना में अधिक थोपा गया है । नारी का दोयम दर्जा आज भी विद्यमान है जो गड़बड़ाये लिंगानुपात, ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में आज भी महिलाओं की दुर्दशा, सामाजिक कुप्रथाओं , महिलाओं के साथ बढ़ती बलात्कार और हिंसा की घटनाओं के रूप में उजागर करता है कि एक नारी को सशक्तिकरण की राह में महिला होने का मूल्य कई बार चुकाना पड़ता है। नारी गरिमा के रक्षार्थ और अन्याय के विरुद्ध तमाम कानूनों और प्रावधानों के बावजूद समाज और व्यक्ति की मानसिकता मे बुनियादी परिवर्तन किए बिना नारी सशक्तिकरण का लक्ष्य प्राप्त नहीं की जा सकता। केवल महिला दिवस के मौके पर नारे लगाने, वक्तव्य देने और सोशल मीडिया पर आयोजन की तस्वीरें पोस्ट करने से लक्ष्य हासिल नहीं होगा। आजादी के पश्चात आज लगभग सभी वर्गों, जातियों व समुदाय ने समाज में अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए एकजुटता का परिचय दिया है जिसका परिणाम है सामाजिक सरोकारों के विभिन्न क्षेत्रों में आज सदियों से वंचित तबका भी सशक्त भूमिका का निर्वाह कर रहा है। महिलाओं को भी इसी प्रकार एकजुट होकर दीर्घकालीन हितों के आधार पर व्यक्तिगत व सामूहिक स्तर पर एकजुटता का परिचय देते हुए सामाजिक परिवर्तन के नारे को बुलंद करना होगा। पारिवारिक स्तर पर माता-पिता का भी कर्तव्य है कि बेटियों को शिक्षित व स्वावलंबी बनाने के साथ अन्याय के खिलाफ मुखर होना सिखाएं। इसके साथ-साथ जीवन में संकीर्ण मनोभावों का परित्याग कर उदार व संस्कारित मनोवृति को अपनाया जाना चाहिए। पुरुष को भी माता द्वारा स्त्री का सम्मान व स्वाभिमान की सुरक्षा की शिक्षा परिवार में अवश्य दी जानी चाहिए क्योंकि पारिवारिक स्तर में जब तक बेहतर संस्कारों और मूल्यों का रोपण नहीं किया जाएगा तब तक हम बेहतर समाज की कल्पना नहीं कर सकते । शिक्षा केवल आंकड़ों में समाहित ना होकर बल्कि व्यवहार व उच्च वैचारिकी के स्तर को निर्मित करने की दिशा में भीहोनी चाहिए। किसी भी समाज को गतिशीलता वहां के मूल्य और संस्कृति प्रदान करते हैं जिसमें समय व आवश्यकता के अनुसार सकारात्मक बदलाव भी आवश्यक है। बाल्यावस्था से ही स्त्री और पुरुष दोनों में ही मानवीय मूल्यों व संस्कारों का रोपण करने के साथ उनकी आंतरिक चेतना और शक्ति को जागृत किए बिना सभी प्रयास मात्र सतह के स्तर पर होंगे जहां सशक्तिकरण तो दिखाई देगा लेकिन शोषण व चीत्कार की गूंज कहीं दब कर रह जाएगी।विद्यालयों के शिक्षकों को भी इस दिशा में सार्थक उत्तरदायित्व का निर्वहन करना होगा क्योंकि यही भारत के भविष्य की नींव तैयार हो रही है। नींव दुरस्त होगी तो वही बच्चे जब व्यस्त होकर उच्च लोक महत्व के पदों पर आसीन होंगे तब वे तटस्थ व निष्पक्ष रुप से नारी पुरुष के संकीर्ण दायरे से ऊपर उठकर उसे मात्र उपभोग की वस्तु न समझ कर मानवीय रूप मे स्वीकार करेंगे।

इसे विडंबना ही कहेंगे कि आधुनिक समाज में लोक महत्व के जिम्मेदार नागरिक पदों पर आसीन व्यक्ति ही महिला के साथ होने वाले दुर्व्यवहार व यौन उत्पीड़न के दोषी पाए गए और तंत्र जब दोषियों के बचाव के सारे मार्ग अख्तियार करता है तो सशक्तिकरण के सारे दावे खोखले सिद्ध हो जाते हैं और सशक्तिकरण का विद्रूप और निराशाजनक रूप सड़कों पर आंदोलन के रूप में दिखाई देता है। किरण नेगी, अंकिता भंडारी और उन्नाव बलात्कार और हत्याकांड और भी इसी प्रकार के अन्य मामले इसके साक्षी है। ऐसे तमाम मामलों में पीड़ित महिलाओं को न्याय मिले बिना महिला सशक्तिकरण मात्र एक दिन के उत्सव से अधिक नजर नहीं आएगा । नारी शोषण ,उत्पीड़न , हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाएं तब तक नहीं रुकेंगी जब तक समाज जागरूकता का परिचय देते हुए नारी अस्मिता को धर्म ,जाति, समुदाय, क्षेत्र विशेष से ना जोड़ते हुए उसे मानवीय गरिमा के संदर्भ में देखना प्रारंभ नहीं करेगा और राजनीतिक व सामाजिक दिखावे से दूर होकर इस दिशा में सार्थक प्रयास नहीं करेगा। महिलाओं के प्रति उपभोगवादी और बाजारवादी मानसिकता का अंत किए बिना और उनकी आंतरिक चेतना और शक्तियों को जागृत किए बिना सशक्तिकरण के सभी प्रयास खोखले और अधूरे ही सिद्ध होंगे क्योंकि समाज में सतह के स्तर पर पर बेशक हमें चमचमाहट दिखाई दे रही है भीतर होने वाले रुदन, आक्रोश और उथल-पुथल के प्रति समग्र अंतर्दृष्टि विकसित कर उसे शांत किया जाना अत्यंत आवश्यक है। आइए इस महिला दिवस में हम संकल्प करें कि सभ्य समाज का अंग होते हुए इस समाज को इस प्रकार शिक्षित करेंगे कि नारी को केवल मनुष्यता का मोल चुकाना पड़ेगा, ना कि नारी होने का।

प्रस्तुति – बीना नयाल

महिला सशक्तिकरण दिवस(8 मार्च ) पर विशेष

Add Your Comment

Whatsapp Me