ख्वाहिशें अपनी बेच आता हूं

ख्वाहिशें अपनी बेच आता हूं
यूं ज़रूरत से मैं निभाता हूं।।

थके कदमों से लौटता घर को
देख बच्चों को मुस्कुराता हूं।।

दिल से मजबूर जब दिमाग़ हुआ
दर्द सहकर भी सुकून पाता हूं।।

भूख अक्सर ही जीत जाती है
मैं उसूलों से हार जाता हूं।।

ऐ ‘बशर’ रोज़ खोदता हूं कुआं
प्यास अपनी मैं यूं बुझाता हूं।।

दिनेश चंद्र पाठक ‘बशर’।।

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