ख़त्म यूं मर्ज़ हुआ, रोज़ मुलाकातों से,
बात का ज़ख्म था जो, भर गया वो बातों से।।
ताज जिसने भी बनाया है इस ज़माने में,
एक दिन घर को गया है वो कटे हाथों से।
दिल दुखाया था किसी रोज़ किसी मुफ़लिस का,
सो नहीं पाया है वो पिछली कई रातों से।।
लोग इस दुनियाँ में जबतक जुबां के क़ायल थे,
कितना आज़ाद था इंसान बहिखातों से?
खौफ़ से सहम उठी आज एक नन्हीं कली,
ज़िस्म को छूते हुए अपनों के ही हाथों से।।
ऐ ‘बशर’ तेरी भी फितरत से सब परेशां हैं
सबको उकताया करे है तू अपनी बातों से।।
दिनेश चंद्र पाठक ‘बशर’।।
मेरी पुस्तक ‘कुछ शब्द ठिठके से’ से उद्धृत।।