राह-ए-सुकूं

राह-ए-सुकूं
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ऐ सखि ! जरा फिर से, मुस्कुराओ ना
उदास क्यों हो,  खिलखिलाओ ना।
चुभती है तुम्हारी उदासी शूल सम
और हंसने से खिलखिलाते हैं तारे
फिर तारों की तरह, मुस्कुराओ ना।
पहले तुम्हें  कभी  उदास न देखा
इस तरह कभी नाराज होते न देखा
क्या  रूठी हो  हमसे,  बताओ  ना।
ऐ सखि!  तुम्हारे  गुमसुम रहने से
यह  सहर भी  बेजान सी  लगती  है
अपनी वो ख़ुशनुमा सूरत, दिखाओ ना।
ऐ सखि ! नहीं  कोई और मेरा साथी
क्यूं  तुमने  भी  बना ली  है यह  दूरी
करूं  क्या  हाय मुझे, समझाओ  ना।
ऐसे में निकल ही  जायेगी जाँ  मेरी
गर  तुम  यूँ   ही   उदासी  पहनोगी 
‘निर्मल’ कोई राह-ए सुकूं, दिखाओ ना।
                    _ हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’

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