सुर की धार
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मन और वाणी के तार
जब तक न हों एकाकार
तब – तब बिखरेगा सुर
हो न पायेगा मधुर झंकार ।
सुर संधान कोई खेल नहीं
साज ले लिया हाथ में ?
और कर दिया आलापन
मिटाना पड़ेगा मन का विकार।
सुर साधने में गुजर जाती है उम्र
एक कण मिले तो समझो धन्य
“सा” की पहली श्रुति ही
सध गयी तो होगया उद्धार ।
“सा” अकेला ही समुद्र सम है
मथना पड़ेगा लगन के हाथों
तब कहीं दिखेगा अमृत घट
और बहेगी सुर की अमृत धार ।
सुर ही नाद और सुर ही ब्रह्म
सुर भरा पड़ा है आकाश में
नदी की कल-कल में भी है
पकड़नी पड़ती है एक छोर ।
बीच भंवर में उतरने वाला
पाता नहीं किनारा डूबता है
‘निर्मल’ मन जब हो शुद्ध भाव
तभी माँ शारदा करे उपकार ।
…….माँ शारदा करे उपकार ।
_ हीराबल्लभ पाठक ‘निर्मल’