निर्मोही ! तू चला कहाँ
मुझे छोड़ इस निर्जन वन में ।
खड़े भेड़िये अनगिनत
जीभ लपलपाते मानव तन में ।
मनुष्यता यहाँ नहीं है
दानवता का तम फैला
सूरज भी असहाय सा
विचर रहा है नीलगगन में ।
वनचर भी हैं उदास
देख भेड़ियों की टोली को
ना जाने कब किसे मारकर
शामिल कर लें निज भोजन में ।
हाहाकार जीव कर रहा
निर्ममता के अट्टहास पर
दिखती नहीं किरण आशा की
घोर हताशा भरे इस मन में ।
मानव की इस निर्दयता पर
लहू के आंसू रोते-रोते
पशु-पक्षी भी भाग रहे
इस वन में और उस वन में ।
कोई तो होगा ? इस धरती पर
जो रोके इस ताण्डव को
“निर्मल” हो यह वन उपवन
और शान्ति मिले तन में मन में ।
____हीराबल्लभ पाठक “निर्मल”