पर्यावरण दिवस पर विशेष

५ जून विश्व पर्यावरण दिवस के नाम समर्पित है। दिवस विशेष को वही पत्र-पत्रिकाओं में कुछ संबंधित चित्र, आलेख, संचार माध्यमों में कुछ चर्चा- परिचर्चा, कुछ सरकारी घोषणाएं और कार्यक्रम। आवश्यकता है हम आमजन पर्यावरण को इसके स्थूल रूप से पृथक इसके वास्तविक रूप में ग्रहण करें।

2021 में भारत जब विश्व पर्यावरण दिवस मना रहा था , जब वृक्षमित्र सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावरणविद हमसे अंतिम विदाई ले चुके थे और दूसरी ओर पूरा देश कोरोना की दूसरी लहर के प्रचंड वेग से बाहर निकलने के लिए आकुल – व्याकुल था। प्रकृति को जीवन की सहगामिनी बनाना इस विश्वव्यापी आपदा के बाद मनुष्य की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

आवश्यकता है कि औद्योगिक इकाइयां जल, वायु, मृदा जिन क्षेत्रों में भी अपने प्रयासों के द्वारा प्रदूषण की मात्रा को कम कर सकती हैं या न्यूनतम स्तर पर ले जा सकती हैं उन्हें अपने लाभ का एक निश्चित प्रतिशत अवश्य ही इन जीवनदायी उपायों पर खर्च करना चाहिए। पर्यावरण संरक्षण के कार्य में उद्यमी अपने औद्योगिक इकाइयों और औद्योगिक बस्तियों में वृक्षारोपण और जल प्रबंधन के क्षेत्र में उत्तम कार्य कर मिसाल कायम कर सकते हैं। स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता पहले से ही वैश्विक चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और उसके सहयोगियों की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 70 करोड़ से ज्यादा आबादी की स्थिति पानी को लेकर चिंताजनक है। औद्योगिक इकाइयां इस क्षेत्र में कितनी प्रवीणता से कार्य कर सकती हैं -इसका एक ताजातरीन उदाहरण जल संरक्षण की दिशा में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी, जमशेदपुर, झारखंड, का एक पैकेज, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट है, जिसके द्वारा प्रतिदिन 50000 लीटर पानी को साफ कर वहां के आसपास के चौक -चौराहों पर लगे पेड़ -पौधे को उस पानी से सिंचित करने, वॉशरूम में उपयोग किये जाने, औद्योगिक उपयोग में भी लाये जाने का कार्य किया जा रहा है। साफ- सफाई और कूड़ा प्रबंधन , कूड़े का नवीनकरणीय रूप में प्रयोग, कृत्रिम पार्कों के निर्माण-इन क्षेत्रों में औद्योगिक इकाइयों द्वारा दायित्व निर्वहन कर सामाजिक दायित्वों के प्रति ईमानदारी दिखाई जानी चाहिए। टाटा स्टील एंड आयरन कंपनी, जमशेदपुर ने लौहनगरी जमशेदपुर, झारखण्ड में प्लास्टिक के द्वारा एक लंबी सड़क का निर्माण कर प्लास्टिक की चुनौती का सामना करना भी सीखाया है ।

जल संकट तीसरे विश्व युद्ध का कारण बनेगा-भविष्य के प्रति इस आशंकित भय के निराकरण हेतु हम स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर तो पहल करना प्रारंभ कर ही दें। सूखी पड़ी नदियों, तालाबों, झीलों में फिर से जलधारा कैसे प्रवाहित हो पाए-पर गहन चिंतन इस विषय के विशेषज्ञों को करना होगा। प्राकृतिक स्रोत आजीवन प्रवाहित रहें-विचारणीय हैं।भूगर्भ जल स्तर के गिरते स्तर को खास करके गहन आवासीय बस्तियों में – इस समस्या को अब और अवहेलित करना उस खतरनाक चित्र को फिर से आमंत्रित करने जैसा है जब चेन्नई जैसे शहर में रेल से शहरी आवासीय बस्तियों में पानी का वितरण किया गया था। कठोर कानूनों के द्वारा हर घर में वर्षा जल संचयन पर हमें कार्य करना ही होगा।सरकारों के पास भी ऊर्जा के वैकल्पिक प्रयोग को बढ़ावा देने को लंबित करने का कोई कारण नहीं है। हम इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रयोग को बढ़ावा दें, सार्वजनिक व्यवस्था इतनी दुरुस्त रखें कि निजी वाहनों के सीमित प्रयोग द्वारा ईंधन और प्रदूषण नियंत्रण- दोनों ही दिशा में सकारात्मक पहल होना प्रारंभ हो जाए, सौर ऊर्जा को इतना बढ़ावा दें कि आवासीय बस्तियों के हर छत पर सौर प्लेटो की उपस्थिति दर्ज होने लगे। जैविक खेती को बढ़ावा मिले, किसानों को उनकी स्थानीयता के अनुसार उत्पादन करने और मिट्टी के उपजसंवर्धन को बढ़ाएं रखने के लिए तकनीकी रूप से पर्याप्त ज्ञान और आर्थिक सहयोग मिलता रहे। असम में बांस के पत्तों से नई प्रकार की चाय पत्ती बनाने का मामला प्रकाश में आया है, इस तकनीक के प्रयोग को उन राज्यों में भी बढ़ावा दिया जा सकता है जहां बांस का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है जैसे कि झारखंड। खेती में स्थानीयता को बढ़ावा एवं वन उत्पादों का लाभकर प्रयोग स्थानीय निवासियों को उनकी माटी और स्थानीय वनों के प्रति गहन ममत्व और आकर्षण से भरता रहेगा।

कोरोना काल में राष्ट्र ने चार-चार चक्रवाती तूफानों को झेला है। अम्फन, निसर्ग ,ताइतू, यास ; बाढ़ अलग, वनों में लगी आग अलग- आवश्यकता है इन प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए यथासंभव सशक्त प्रतिरोधक तंत्र विकसित करना, ताकि पूर्वानुमान के द्वारा केवल जानमाल की क्षति को ही कम न किया जा सके, अपितु उसके उचित प्रबंधन के साथ-साथ यथासंभव रोक पर भी पर भी हम कार्य कर सकें।कोविड-19 के इस चुनौतीपूर्ण समय में चिकित्सकीय कूड़े का उचित निपटान भी संपूर्ण विश्व के लिए एक चिंताजनक तथ्य रहा है। कार्बन उत्सर्जन, ओजोन परत में प्रदूषण से हो रहे छेद-जैसे बड़े-बड़े विषय अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सुलझाए जाते रहेंगे, हम राष्ट्रीय और व्यक्तिगत रूप से अपने छोटे- छोटे कदम तो बढ़ाना प्रारंभ कर ही दें।

प्रशासन या संगठन-चाहे वह औद्योगिक हो या राजनयिक, पर्यावरण रक्षण के संदर्भ में अपनी- अपनी जिम्मेदारियां तो निभाये ही; आम नागरिक भी पर्यावरण के प्रति वैसे ही सचेत हों जैसे अपने घर या परिवार के प्रति होते हैं। प्लास्टिक का कम से कम प्रयोग, सार्वजनिक परिवहन साधनों एवं साइकिल के प्रयोग को यथोचित और यथासंभव बढ़ावा देना, पानी-बिजली के दुरुपयोग को रोकना, पशु- पक्षियों के प्रति संवेदनशील होना, ऊर्जा के अन्य विकल्पों, सौर ऊर्जा आदि को बढ़ावा देना, अपने मोहल्ले के पार्क या अपने घर के आस-पास की वनस्पतियों के प्रति अपने उद्यान की तरह संवेदनशील होना और उसकी देखरेख करना, कूड़े को यथासंभव कूड़ेदान में ही डालना; यत्र- तत्र, खुली जगह या सड़कों पर न फेंक देना, गीले और सूखे कचड़े के लिए बने अलग-अलग कूड़ेदानों का प्रयोग करना- हमारे प्रयासों में शामिल होना चाहिए। हम बच्चों में जन्मदिन या किसी दिवस विशेष के लिए क्यों न पौधे भेंट देने की परंपरा का बीजारोपण करें। कार्यस्थल या छात्रों के विद्यालय गमन-जैसे मामले में पारी बांधकर एक जगह रहने वाले लोग बारी- बारी से अपने वाहन का प्रयोग बच्चों को स्कूल छोड़ने या कार्यस्थली तक जाने में कर सकते हैं।यह न केवल ईंधन के मितव्ययितापूर्ण समुचित प्रयोग को बढ़ावा देगा अपितु हमारी सड़कों पर वाहनों के कम दबाव में ,ध्वनि और वायु प्रदूषण दोनों की रोक में मददगार भी होगा।
जल प्रबंधन, जल निकासी, वर्षा जल संचयन, स्थानीय नदी, नाले, तालाबों को प्रदूषण से मुक्त रखने में अपनी जिम्मेदारी निभाना-इसके लिए प्रशासन या सरकार की ओर नजरें गढ़ाने की अपेक्षा हर नागरिक को अपने -अपने स्तर से अपने व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के बारे में सोचना होगा। आसपास के वृक्षों की रक्षा और खाली जगह पर अधिकाधिक पादपों का रोपण-जहां मिट्टी के कटाव को रोकने, जल के भूगर्भीय स्तर को बनाए रखने में सहायक होगा, दूसरी ओर वायु प्रदूषण की काट तैयार करेगा। सपाटा और भ्रमण के लिए बढ़े हमारे कदम माउंट एवरेस्ट से लेकर समुद्र तक में कचड़ों का अंबार लगा रहे हैं, तो स्थानीय निवास स्थलों की क्या बिसात? वर्तमान समय में पर्यटन केवलआनंद प्राप्ति का स्रोत न हो, अपितु पर्यावरण मैत्री के भाव से भी भरा हो। अपनी लापरवाहियों से पर्यावरण को हानि पहुंचाए बिना हम स्थानीय अर्थव्यवस्था (विशेषकर स्थानीय हस्तशिल्प) को मदद करते चलें।अपने आसपास कौवों और गौरैयों की संख्या में दिखाई देने वाली चिंताजनक कमी क्या किसी पर्यावरणीय संकट की ओर इशारा कर रही हैं?

कोरोना काल में जहां लोगों की जीवन संबंधी आपाधापी पर नियंत्रण करना प्रशासन की मजबूरी हो गई थी तो इसका एक सकारात्मक प्रभाव यह भी देखा गया कि वायु- प्रदूषण का स्तर कई क्षेत्रों में अपने न्यूनतम अंक पर आकर सिमट गया। स्पष्ट है मानवीय गतिविधियां प्रदूषित करती हैं अपने आसपास के वातावरण को। अंधाधुंध प्रगति की कीमत हमारे वृक्षों , भूमि और कई बार जलीय संसाधनों ने चुकाई है और उसकी कीमत अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय जीवन चुकाएगा। चिंतक जॉन मुइर ने कितना सही कहा है-“इन पेड़ों के लिये भगवान ध्यान देता है।इन्हें सूखे, बीमारी, हिम्स्खलन और एक हजार तूफानों और बाढ़ से बचाता है। लेकिन वो इन्हें बेवकूफों से नहीं बचा सकता।”

पर्यावरण सब कुछ है जो मैं नहीं हूँ।”- अल्बर्ट आइंस्टाईन। यह वैज्ञानिक सोच जन-जन की जीवनधारा में शामिल होगी, तभी हम पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय माहौल तैयार कर पाएंगे और तत्पश्चात ही भविष्य के लिए एक बेहतर धरती भी।

रीता रानी
जमशेदपुर, झारखंड।

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