जो नहीं फ़िक्र मंज़िलों की किये
राह का लुत्फ़ वो ही लोग लिये।।
उनको फुर्सत नहीं पलों की भी
बैठे हैं पीढ़ियों का बोझ लिये।।
क्या कहूँ माँ का बेमिसाल हुनर
अश्क़ पी के भी मीठे बोल दिये।।
जिनके बेटों ने की तरक़्क़ी बहुत
वो हैं काँधों पे अपना बोझ लिये।।
शाम से डरते हैं वो घर-आँगन
जिनके अपने ही उनको छोड़ दिये।।
ऐ ‘बशर’ मैं हूँ और तन्हाई
कितने संज़ीदगी ने बोझ दिये।।
दिनेश चंद्र पाठक ‘बशर’।।
2 Comments
अनीता ध्यानी
बहुत सुंदर गजल
Dinesh Chandra Pathak
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया