जोशीमठ: एक मानवरचित व्यथा

नव वर्ष 2023 उत्तराखंड के जोशीमठ क्षेत्र के निवासियों के लिए भय, भविष्य के प्रति गहन चिंता, निराशा और अवसाद लेकर आया है। जोशीमठ में मुख्य सड़क मार्ग सहित लोगों के घरों की दीवारें में पड़ी दरारें, जमीन के दिन-प्रतिदिन धंसने, जमीन की दरारों से पानी निकलने की घटनाओं से जहां स्थानीय निवासियों और उनके पूर्वजों की भूमि के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है वहीं मानव जनित इस आपदा ने समूचे उत्तराखंड के भविष्य के लिए भी चेतावनी जारी कर दी है। इस आपदा को अगर विकास की रूपरेखा बनाने वाला प्रशासन गंभीरता से नहीं लेगा तो धीरे-धीरे पहाड़ रहने लायक नहीं बचेंगे।

जोशीमठ, पहाड़ में मानवीय बसावट लिए महज एक स्थान न होकर, सनातन धर्म का गहन आध्यात्मिक क्षेत्र है । उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र अलौकिकता और सौंदर्य से भरपूर होने के साथ ही सामरिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त यह अपने गर्भ में न जाने कितने आध्यात्मिक रहस्य तथा ऐतिहासिक तथ्यों को समेटे हुए है। आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रथम ज्योतिर्मठ पीठ के कारण अध्यात्म की गहरी जड़ें और पौराणिक महत्व होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के कण-कण में देवताओं का वास है। जोशीमठ का सदियों पुराना पौराणिक इतिहास है। रामायण और महाभारत काल के अनेकों साक्ष्य यहाँ विद्यमान हैं। समृद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत के साथ ही भगवान बद्रीनाथ का शीतकालीन निवास स्थान भी यहीं जोशीमठ में है। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर होने और भगवान बद्रीनाथ मार्ग का पड़ाव स्थल होने के कारण देशभर से लाखों श्रद्धालु सैलानी यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य को नजदीक से महसूस करने, तीर्थाटन के लिए आते हैं। इतना ही नहीं विभिन्न प्रकार की एडवेंचर गतिविधियों के कारण औली, युवाओं और बच्चों के लिए पसंदीदा पर्यटन स्थल जोशीमठ के ही नजदीक है।

पर्यटन एवं राजस्व दोनों ही दृष्टिकोण में जब बाहरी व्यापारियों के हित समन्वित हुए तब राज्य व स्थानीय निवासियों के विकास व रोजगार के नाम पर यहां पिछले कुछ वर्षों में बहुत सी बहु-उद्देशीय परियोजनाएं और अनियोजित तरीके से निर्माणाधीन गतिविधियों को मंजूरी दी गई। इस क्षेत्र की भूकंप और भौगोलिक दृष्टि से संवेदनशीलता और पर्यावरण व सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन किए बिना, जिस तरह यहां छोटी-बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी दी जा रही है, उसके दुष्परिणाम के रूप में पिछले एक दशक में भूस्खलन, बादल फटना, भूकंप, अतिवृष्टि, अनियंत्रित बाढ़ जैसे घटनाएं बढ़ी हैं, जिससे प्रभावित होने वाला वर्ग आम जनमानस ही है जो यहाँ की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में भी प्रसन्नतापूर्वक अपना जीवन यापन कर रहा है। वास्तव में यहाँ के निवासी जो पूर्वजों की विरासत के संरक्षण के लिए कृतसंकल्प है और विपरीत परिस्थितियों में खेती-किसानी व अन्य लघु उद्योगधंधों में संलग्नता से प्रकृति की गोद में अपना जीवन व्यतीत कर संतुष्ट है शायद ही उन्हें इन बड़ी विकास परियोजनाओं का लाभ मिल पाता हो। विकास के नाम पर यहां जो बड़े-बड़े निर्माण व उच्च क्षमता वाली परियोजनाओं को मंजूरी दी जाती है उससे लाभान्वित होने वाला वर्ग बाहरी धनाढ्य पूंजीपति वर्ग है जिनके बड़े-बड़े प्रतिष्ठान यहां लगे हैं सरकारी तंत्र जो वर्षों से उत्तराखंड के सपने को पूर्ण होने के बाद से विकास के नाम पर विनाश के बीज बो रहा है, उत्तराखंड के विकास का रास्ता पहाड़ के पानी और जवानी को उत्तराखंड के विकास के लिए ही प्रयोग करने में होना चाहिए नाकि पिकनिक मनाने के लिए चार दिन के लिए पर्यटन पर आए सैलानियों के लिए होना चाहिए|

विकास के नाम पर जो अनियोजित तरीके से पेड़ों और पहाड़ों की कटाई, बेतहाशा विस्फोट और सुरंगों का निर्माण हो रहा है, वे पहाड़ की जड़ों को जर्जर करने का कार्य कर रही है। जिसका परिणाम समय-समय पर प्राकृतिक आपदा के रूप में सामने आता है। इन प्राकृतिक आपदाओं के लिए दीर्घकालिक मानवीय भूलें ही उत्तरदायी होती हैं।

उत्तराखंड में राज्य और संस्कृति के विकास के नाम पर जो स्वप्न देखा गया वह तो मुट्ठी भर लोगों के विकास और अति महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ गया है। स्थानीय निवासी मूलभूत सुविधाओं के लिए आज भी बदहाल है। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने की शासन प्रशाशन की कतई मंशा नहीं है क्योंकि निवेश किए गए निजी और सरकारी संसाधन उतना निर्गत नहीं देंगे जितना पर्यटन के दृष्टिकोण से विकास आधारित परियोजनाएं जिनमे बड़े-बड़े शहरी गैर उत्तराखंडी व्यापारी रसूख के बल पर सरकारी तंत्र से सांठ-गांठ कर यहां के प्राकृतिक परिवेश को बेतहाशा ढंग से कमजोर कर रहे हैं।

उत्तराखंड में 2013 की केदारनाथ त्रासदी के जख्म आज भी आम जनमानस के हृदय में हरे है। पहाड़ के बहुमूल्य संसाधनों का उपयोग निवासियों के हित में होना चाहिए। संसाधनों का दोहन ही यदि विकास का मुख्य लक्ष्य होगा तो जाने-अनजाने आप विनाश के लिए बीजारोपण कर रहे हैंI पहाड़ जितने संवेदनशील और उदार हैं उतनी ही संवेदनशीलता व उदारता की माँग मनुष्य से करते है। पहाड़ और यहाँ के निवासी इसी सिद्धांत के साथ संवेदनशीलता और उदारता का परिचय देते हुए सदियों से यहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण कर रहे हैं। प्रकृति जिस उदारता से यहाँ प्राकृतिक सौंदर्य लुटाने को उद्यत है उसे रौंदने का दुस्साहस मनुष्य पर ही भारी पड़ेगा क्योंकि प्रकृति अपने संरक्षण व विकास के मामले में हम से कहीं अधिक सक्षम है। इन आपदाओं से उत्तराखंड में मनुष्य और पहाड़ का सह संबंध समाप्त हो जाएगा। प्रकृति स्वयं का पुनर्निमाण कर लेगी लेकिन मनुष्य पर विनाश की छाप मिटने में लंबा समय लगेगा। वर्तमान समय में समस्त पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्थानीय जनता व उत्तराखंड के प्रवासियों को जोशीमठ एवं अन्य पुरानी आपदाओं से सबक लेते हुए हिमालय क्षेत्र के संरक्षण की गुहार लगानी चाहिए। हिमालय खुद को सुरक्षित कर लेगा बल्कि गुहार तो खुद की सांस्कृतिक विरासत, पौराणिक इतिहास, जल-जंगल-जमीन को बचाने की होनी चाहिए।
राजनीति ,संस्कृति और इतिहास को केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण से मत देखिए बल्कि व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर एक विरासत के रूप में पहाड़ को देखने की अंतर्दृष्टि हम सभी को विकसित करनी होगी।

बीना नयाल
पुत्री- स्वर्गीय दीवान सिंह नयाल
दिल्ली शिक्षा विभाग में टीजीटी साइंस के रूप में कार्यरत

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