एक जीवन यह भी

खेतों और खलिहानों में
मंदिर और मकानों में
सड़कों और दुकानों में
विक्षिप्त तन के छाले
महंगे पड़ते हैं निवाले।।

फटे देह, फटे वस्त्र
धारण किए निर्माण अस्त्र
जेठ दुपहरी कुम्हलाए
कुआं खोदे दिवस प्रति
कंठ अतृप्त मुरझाए।।

ऊँची मीनारों की नक्काशी
क्या मथुरा क्या काशी
युद्ध भूमि बनी ज्यों झांसी
फिसल पर धर निज पांव
जीवन लगता नित्य दांव।।

गहरे समुंदर की पैठ तक
जल निमग्न बैठ कर
ईमानदारी की ऐंठ तक
सहेज लाते कितने मोती
प्रज्वलित कर जीवन ज्योति।।

बना पथ सुगम्य छोर तक
उनींदी अनगिनत भोर तक
अश्रु नयन बिंदु छोर तक
अगम्य पथों के विजेता
रहे मानवता को चेता।।

         _अन्नू मैंदोला,कोटद्वार।।

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