वृक्ष धरा के आभूषण
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मैं भी एक परिंदा होता,
स्वछंद विचरता नीले नभ में
इस प्रकृति के शुभ शृंगार का,
अवलोकन करता।
पर एसा कैसे हो सकता है,
तुच्छ एक मैं मानव हूँ
क्रूरता का दाग ऐसा,
मानव हूँ या दानव हूँ ।
आँखे खोली जबसे मैंने,
देख रहा हूँ अत्याचार
निरीह प्राणी दौड़ रहे हैं,
मचा हुआ है हाहाकार।
तनिक नहीं मैं शर्माया,
और न लज्जा ही आई
घृणित कर्म करते करते,
मैं बन गया कसाई।
मानव होकर मान किया ना,
अभिमानी बन गया
इस प्रकृति के कण कण का,
आज ऋणी हो गया।
दोषी कौन पता नहीं,
मैं भी तो हो सकता हूँ
हरी भरी इस वसुन्धरा का,
दोहन नित करता हूँ ।
एक वृक्ष बस एक वृक्ष,
आज अगर मैं रोपूं
प्राणवायु के उत्सृजन में,
योगदान कुछ करलूं।
वृक्ष एक सौ पुत्र समान है,
कहते हैं ऐसा ज्ञानी
उठो धरा के वीर सपूतों,
करो न अब नादानी।
“निर्मल” करलो मनको,
करो आज ही वृक्षारोपण
धरा नहीं यह जननी है,
पहिराओ इसको आभूषण।
( हीराबल्लभ पाठक “निर्मल”
स्वर साधना संगीत विद्यालय
लखनपुर रामनगर , नैनीताल)