पहले तुम जो मिल जाती

मेरे जीवन का सूना पथ
कटता यूँ ना एकाकी
पहले तुम जो मिल जाती।।
मेरे बेकल मन का मरघट
बनता मंदिर की बाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

मेरे मन की अंतरपीड़ा
भाग्य की दुष्कर भ्रामक क्रीड़ा
मुझको यूँ ना भरमाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

वह कटाक्ष करना अपनों का
बन के बिखर जाना सपनों का
नियति मुझे ना तड़पाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

तारे गिनकर कटती रातें
शून्य में खोकर की जो बातें
गीत प्रेम का बन जाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

जीवन के वो अगणित पल-छिन
बीत गए जो सावन के दिन
पावस ऋतु मधु बरसाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

दोष भला अब दूँ भी किस को
भाग्य को या अपने पौरूष को
कसक नहीं यह रह जाती
पहले तुम जो मिल जाती।।

दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।

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