टाइगर

टाइगर नाम था एक-सफेद भूरे रंग के कुत्ते का। ऊँचा कद, शरीर पर घने लम्बे बाल, खेलप्रेमी। टाइगर से मेरी मुलाक़ात तब हुई थी जब हम रामनगर छोड़कर बसई ग्राम में स्थित एक मंदिर के महंत स्वामी परेश यति जी के आमंत्रण पर मंदिर परिसर से थोड़ा अलग बने एक टू रूम सेट में रहने लगे थे। स्वामी जी आज महामंडलेश्वर पद को सुशोभित करते हैं।
बहरहाल, मुझे बचपन से ही पशु-पक्षियों से बहुत लगाव रहा है। वहाँ मंदिर परिसर में ही एक पालतू कुत्ता दिखाई दिया, टाइगर। बहुत जल्द टाइगर हमारे पूरे परिवार से घुलमिल गया।
कुत्ते का मनुष्यों से लगाव कोई अनोखी बात तो नहीं, किन्तु इस कुत्ते में कुछ विशेष था। मंदिर में सुबह और शाम लगभग एक घण्टे की आरती होती थी। जिसमें आसपास के कुछ लोग भी सम्मिलित होने आ जाया करते थे। कोई घण्टा बजाने का काम सम्हालता, कोई शंख, कोई अन्य इसी प्रकार के यंत्र। टाइगर सुबह से शाम तक तो पूरे गाँव मे घूमता फिरता था लेकिन जैसे ही घण्टे की आवाज़ मंदिर परिसर में गूँजती, वह जहाँ भी होता, तेज़ गति से दौड़ लगाकर देवालय के सामने उपस्थित हो जाता। पूरा एक घण्टा हमारे क्रियाकलापों को ध्यान से देखता। पूजा के अंत में जब शंखध्वनि होती तो स्वयं भी तीन बार अपने मुँह से शंख जैसी ही ध्वनि निकालता। पूजा के समापन पर टाइगर को प्रसाद की भी अपेक्षा रहती। आत्मा-परमात्मा की चर्चा करने वाले कई श्रद्धालु लोग कहते कि कोई अच्छी आत्मा इसके शरीर में है, जिसे अपना पिछला जन्म याद है।
बहरहाल जबतक टाइगर ज़िंदा रहा कभी उसकी पूजा में कोई नागा नहीं हुआ।
बस एक कमी थी टाइगर के व्यवहार में, आप उसके खाने की थाली को हाथ नहीं लगा सकते थे। थाली खाली हो या भरी, लेकिन यदि आपने उसे छू भी लिया, तो टाइगर के रौद्ररूप के दर्शन होना अवश्यम्भावी था। फिर चाहे थाली को हाथ लगाने वाला कितना भी अपना क्यों न हो। उसे खाना भी बहुत सावधानी से देना पड़ता था। वैसे इस गाँव में उसके लिये भोजन की कोई कमी न थी। किसी भी घर जाकर डेरा जमा ले, भोजन मिल ही जाता।
टाइगर अपनी युवावस्था में था, जोश और ऊर्जा से भरपूर। मुझे लगता था कि अभी काफ़ी समय वह हमारे साथ रहेगा। लेकिन इस बीच कुछ अनचाहा घटित हुआ। गाँव में किसी परिवार में मछली बनी हुई थी। शायद उन्होंने अपनत्व के कारण टाइगर को भी कुछ मछली खाने को दी। बिल्ली मछली खाने में सिद्धहस्त होती है, किन्तु कुत्ता मछली के काँटों को इतनी कुशलता से नहीं चबा पाता। शायद मछली का कोई कांटा उसके जबड़े में कहीं चुभ गया था। इसका आभास हमें बहुत देर से हुआ। जबड़े में चुभा वह कांटा धीरे-धीरे टाइगर के जबड़े को सड़ाने लगा। इस समय उसे उपचार की आवश्यकता थी, किन्तु कम से कम मेरी जानकारी में उस समय उधर कोई पशु चिकित्सालय नहीं था। फिर भी टाइगर स्वस्थ था। दिनभर दौड़ता-भागता और जमकर खाता।
इसी समय मंदिर में एक पुराने सेवक का आगमन हुआ। गौर वर्ण, लम्बा कद, बात-बात में ईश्वरीय सत्ता एवं धर्म-कर्म की बातें करना। दिनभर ये सज्जन अपने कमरे में बैठकर विविध धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करते रहते।
शायद बचपन में इन्होंने टाइगर की देखभाल भी की हो, तो उसके प्रति एक अधिकार का भाव भी उनके भीतर था।
गर्मियों के दिन थे, दोपहर का समय, शायद आज टाइगर का मूड था कि भोजन हमारे साथ ही करेगा, तो जमकर घर की देहरी पर बैठ गया। तभी वे सज्जन टाइगर को भोजन के लिये आवाज़ देने लगे। लेकिन टाइगर था मनमौजी, भई कहते हैं न जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। बचपन से फक्कड़ बाबाओं और लोगों की संगत में रहा टाइगर खुद भी फक्कड़ हो चुका था। उसने आवाज़ की दिशा में देखा और फिर अनसुना कर दिया। सज्जन ने काफ़ी देर आवाज़ दी फिर कुछ अलग सी मुखमुद्रा बनाए हुए अपने कमरे में चले गए।
टाइगर ने उस दिन हमारे यहाँ भोजन किया। मुझे पता नहीं था कि यह इसके जीवन का आखिरी भोजन है। वरना शायद उस दिन उसे भूखा ही रहने देता। भोजन के बाद कुछ देर टाइगर मेरे साथ खेलता रहा और फिर मंदिर की ओर चला गया।
कुछ ही देर में एक पीड़ाजनित आर्त्तनाद पूरे मंदिर परिसर में व्याप्त हो गया। यह चीख टाइगर की थी। हृदय को विदीर्ण कर देने वाला आर्त्तनाद काफ़ी देर तक वायुमंडल में गूँजता रहा।
शायद अपनी आवाज़ पर टाइगर का प्रतिक्रिया न देना उन सज्जन को अपना अपमान लगा। सारा का सारा आध्यात्मिक ज्ञान इस अपमान के समक्ष छोटा पड़ गया था। मुझे लगा कि शायद उन सज्जन ने खीझकर थोड़ा-बहुत टाइगर की पिटाई कर दी होगी। किन्तु सही स्थिति का अंदाज़ नहीं लगा पाया।
शाम को मंदिर की ओर गया तो देखा कि जो टाइगर सदैव पूरे गाँव में आज़ाद घूमता रहा था, वो एक मोटी जंजीर से बँधा हुआ था। कुछ देर ध्यान से देखा तो अनुभव किया कि पीड़ा के भाव अभी भी उसके चेहरे और आँखों में थे। अभी तक आँसुओं की एक लकीर उसकी आँखों से जबड़े तक बनी हुई थी। उफ़्फ़फ़ यह क्या? उस निर्दयी व्यक्ति ने एक मोटे डण्डे से ठीक उस जबड़े पर प्रहार किया था जहाँ वह मछली का कांटा चुभा हुआ था। हे राम!! इतनी निर्ममता??? अकस्मात मेरी आँखें सजल हो उठीं। कुछ देर टाइगर को बहलाने का प्रयास किया, किन्तु असफ़ल रहा। क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से टाइगर पर मेरा कोई अधिकार नहीं था, इसलिए मैं उसे खोल भी नहीं सकता था। तीन या चार दिन तक टाइगर उसी अवस्था में बँधा रहा। वह खाना और पानी छोड़ चुका था, या यूँ कहें कि अब वह कुछ खाने में समर्थ ही नहीं था। यह वह समय था जब मैं उसकी मुक्ति की कामना करने लगा और आख़िरकार वह समय आ ही गया जब टाइगर उस असहनीय पीड़ा से मुक्त हो गया। किन्तु आज मेरे मन में दुःख कम और टाइगर के मुक्त हो जाने की प्रसन्नता अधिक थी।
सत्य घटना पर आधारित
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”।।

3 Comments

  • Posted July 8, 2021 11:30 am
    by
    Amit Joshi

    शानदार संस्मरण प्रस्तुति दिनेश भाई। आज के यथार्थ को दर्शाती, जहां किसी का जीवन केंद्र प्रेम है तो किसी का अहं।

    • Posted August 1, 2021 1:09 pm
      by
      Dinesh Chandra Pathak

      बहुत बहुत धन्यवाद अमित भाई

  • Posted July 9, 2021 1:00 pm
    by
    डॉ कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

    बहुत सुन्दर, हार्दिक बधाई

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