कितना साथ निभाओगे तुम ?
कैसा साथ निभाओगे ?
क्या तुम यह बतलाओगे प्रिय ?
कैसा साथ निभाओगे ?
होंगी नित मनुहार की बातें
प्रेम की और शृंगार की बातें
रुष्ट यदि मैं हुई कभी तो
कटुक वचन सह पाओगे ?
प्रिय कैसा साथ निभाओगे ?
झाँक सकोगे मन के भीतर ?
अगणित भाव समर्पित तुम पर
पढ़ पाओगे मन को या फिर
देह में बँध जाओगे ??
प्रिय कैसा साथ निभाओगे ??
जीवन के विघ्नों में फँसकर
व्यथित हुई जो मैं झुँझलाकर
कहो कि मृदु वचनों से अपने
ढांढस मुझे बँधाओगे ??
प्रिय कैसा साथ निभाओगे ??
हो जाऊँ जो तुम्हें समर्पित
मन मेरा होता है शंकित
ये तो नहीं कि प्रेम पे मेरे
लाँछन कभी लगाओगे ??
प्रिय कैसा साथ निभाओगे ??
हो इच्छित जो मेरा समर्पण
कहो कि इस जीवन के पथ पर
मैं बन जाऊँ राधा पर तुम
योगेश्वर बन पाओगे ??
प्रिय कैसा साथ निभाओगे ??
दिनेश चंद्र पाठक “बशर”