सुनाई देती है आहट तुम्हारी
जैसे अभी तुम आ ही रही हो
सपना है या ये भ्रम का अंधेरा
सूरत नज़र आ रही ना तुम्हारी ।
बेचैन मन ये पागल हुआ क्यों
आखिर ये सपना आया ही क्यों था
असर है शायद यही बेखुदी का
यादें ही आती हैं अब भी तुम्हारी ।
जीवन अधूरा तुम बिन, हे प्रिय !
राहें हैं सूनी अनजान आलम
गौरैया भी आती नहीं यहाँ अब
पाली हुई थी जो तब तुम्हारी।
“निर्मल” ये प्यारा सा तुलसी का बिरवा
कुम्हला ही जाता बिना तुम्हारे
तुम्हारी यादों के ही सहारे
तकता है राहें अब भी तुम्हारी ।
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*हीराबल्लभ पाठक “निर्मल”
स्वर साधना संगीत विद्यालय
लखनपुर रामनगर, नैनीताल *